बुधवार, 17 जून 2009

शायनी आहूजा की फ़िल्म न देखे.......


रविवार की रात ही की बात है। मैं हिन्दी फ़िल्म 'करम' देख रहा था। उसमें शायनी आहूजा का अभिनय देख कर काफी प्रभावित हुआ। हांलाकि मैंने इससे पहले भी शायनी की अन्य फिल्में भी देखी थी। सभी फिल्मों में उसने बड़ी ही संजीदा भूमिका निभाई थी। मैं बोलीवुड के जिन कलाकारों को अधिक पसंद करता हूँ उनमे शायनी आहूजा का नाम भी शामिल था ( अब नही )। हाँ तो बात रविवार की है.... इधर में उसकी फ़िल्म में खोया हुआ था उधर वो अपने घ्रणित कार्य के कारन पुलिस हिरासत में... जहाँ एक ओर वह फ़िल्म करम में एक ईमानदार और कर्मठ पुलिस वाले की भुमिका निभा रहा था वहीँ दूसरी ओर वो अपनी चिरकुट हरकत के लिए पुलिस हिरासत में अपराधी की भूमिका में था।
मैंने
रात में ही न्यूज़ चैनल पर यह ख़बर देखी तो दिल को बड़ा आघात लगा। मेरे मन आया कि मैं इस दुष्ट की फ़िल्म क्यो देख रहा था... मैंने उसी पल तय किया अब भविष्य में कभी भी इस टुच्चे की फ़िल्म नही देखूंगा। क्योकि मैंने समाचार में सुना की इसने अपनी नौकरानी के साथ दुष्कर्म किया है। इसकी शिकायत
नौकरानी ने अंधेरी (प.) स्थित ओशिवारा पुलिस स्टेशन में दर्ज करायी है। नौकरानी का आरोप है कि रविवार दोपहर 3 से 5 बजे के बीच आहूजा ने अपनी पत्नी की गैर मौजूदगी में उसके साथ दुष्कर्म किया। शायनी आहूजा ने रात में ही अपना जुर्म कबूल कर लिया है। सुबह होश में आने पर उसने कहा की वो सब तो नौकरानी की रजामंदी से हुआ था। भगवन ही जनता कि है रजामंदी से हुआ या नही। पर जो भी आहूजा ने किया वो तो ग़लत था न। अगर नौकरानी की रजामंदी से हुआ है तो फ़िर उसने शिकायत क्यों की? यह प्रश्न उठता है। और रात में आहूजा ने अपना जुर्म क्यो स्वीकार किया? यह प्रश्न भी सामने आता है. मेरा मानना है की आहूजा ने न सिर्फ़ अपनी नौकरानी का मान मर्दन किया है बल्कि अपनी पत्नी को धोखा दिया है, उसके साथ विश्वाश्घात किया है। हिन्दी फ़िल्म जगत में अक्सर ऐसा ही होता है। पता नही इन लोगों को समाज की मर्यादाओं को तोड़ने में और दुष्कर्म करने में कितना मजा आता है... ठीक है आप खूब करो उल्टे सीधे कर्म करो। पर कम से कम लोगो के नायक मत बनो। असल और फिल्मी जिन्दगी में भी जैसा जीते हो, अपने लिए वैसी ही भूमिका का चयन करें। मेरी लोगो से अपील है की ऐसे किसी भी हीरो की फ़िल्म न देखे.......

शुक्रवार, 12 जून 2009

नस्लीय हिंसा पर प्रताप ने की थी सिंह गर्जना

‘‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर-पशु निरा है, और मृतक समान है।।’’
ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध ऐतिहासिक समाचार पत्र ‘प्रताप’ की ध्येय वाक्य थीं। ये पंक्तियाँ योद्धा पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी के निवेदन पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखीं थी। इन पंक्तियों से ही पता चलता है कि प्रताप कैसा अखबार रहा। प्रताप एक राष्ट्र प्रहरी की भूमिका में था। इस बात को इस तरह समझा जा सकता है कि आस्ट्रेलिया में हो रही नस्लीय हिंसा के विरोध में इतना कठोर आज के किसी भी अखबार ने नहीं लिखा जितने 1913 में दक्षिण अफ्रीका नस्लीय हिंसा का शिकार हो रहे भारतीयों की दुर्दशा को देखकर प्रताप में विद्यार्थी जी ने लिखा था।
अपने दूसरे ही अंक ‘‘प्रताप’’ के खुल तेवर के साथ, सिंह सी तरह गर्जना करके लिखा। 16 नवम्बर 1913 के सम्पादकीय अंगलेख ‘‘निरंकुशता’’ मे विद्यार्थी जी लिखते हैं- ‘‘इस समय दक्षिण अफ्रीका में डेढ़ लाख हिन्दुस्तानी हैं। इनमें पांचवा हिस्सा ऐसे हिन्दुस्तानी का है, जो कुली बनकर नहीं, बल्कि वैसे ही वहां जा बसे। हमारे देश भाइयों ने खूब परिश्रम किया और उससे वे फले-फूले। गोरों की आंखों में उनकी उन्नति बेतरह खटकी। गत शताब्दी के पिछले हिस्से में वे इस बात की सिर तोड़ कोशिश करने लगे कि किसी तरह भी हो, न्याय से या अन्याय से, इन कालों को इस भूमि से निकाल बाहर करना चाहिए।’’
भारत सरकार की चुप्पी पर ‘‘प्रताप’’ ने सवाल उठाया- ‘‘हमारे देश भाई तो अफ्रीका में रहते- सहते और टैक्स देते हुए भी वहां वोट तक देने का अधिकार न पावें और वहां के निवासी आकर हमारी सिविल सर्विस में ऊंचे-ऊंचे पद पावें। इस उदारता का भी कहीं ठिकाना है ?’’ ( भारत में आज भी यह स्थिति हैं कि भारत के बाहर के लोग इस देश में इस देश की संतति से अधिक सुविधा प्राप्त हैं। चाहे वो अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए क्यों न हों? )
‘‘प्रताप’’ के अगले ही अंक (22 नवम्बर 1913) में विद्यार्थी जी का धैर्य मानों जवाब दे गया। वे हुंकार भरते हैं- ‘‘देश में दक्षिण अफ्रीका के उस कोयले की जरूरत नहीं, जिस पर हमें अपने भाइयों के खून के छींटे नजर आवें। हमारे देष का रुपया उन नर पिशाचों की जेबों में न जाए, जो हमारे भाइयों का गला इस बेदर्दी के साथ घोंट रहे हैं।’’
अपने भारतीयों के दर्द पर ऐसी हुंकार भरी थी उस समय के साप्ताहिक समाचार पत्र ने। प्रताप ने दक्षिण अफ्रीका में हो रहे भारतीयों के साथ नस्लीय भेद पर तक तक तीखा प्रहार जारी रखा जब तक कि भारत सरकार पर दबाव न बन गया।
आॅस्ट्रेलिया शुद्ध चोर - लुटेरों का देश है। मेरा एक दोस्त विभिन्न देशों के बारें में अध्ययन कर रहा था तब उसने मुझे बताया था कि आॅस्ट्रेलिया अपराधियों ने बसाया था। विभिन्न युरोपिय देशों के शातिर बदमाश, जो लूट, चोरी, हत्या आदि अपराधों के आरोपी थे वो लोग अपने अपने देश की पुलिस के डर से वहाँ से भाग - भाग कर आॅस्ट्रेलिया में आकर बस गये। अब ऐसे लोगों की संतानों में उनका दुर्गुण होना स्वभाविक ही है। भारत सरकार और अंतराष्ट्रीय हितों की पैरोकार संस्थाओं को जल्द ही आॅस्ट्रेलियाई सरकार पर दबाव बनाना चाहिए।

मंगलवार, 2 जून 2009

बंद से क्या असर होता है ?

बंद से क्या असर होता है ? बहुतों को नहीं पता, पर उन्हें जरूर पता है जिनके घर का चूल्हा बंद वाले दिन नहीं जलता। कल कांग्रेस ने हत्या के विरोध में ग्वालियर बंद करवाया। इस दौरान मेरी कुछ ऐसे लोगों से चर्चा हुई जो रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं। उन्हे रोज रोज के बंद और हड़ताल के कारण कई कई दिन मजबूरी में उपवास रखना पड़ता है। उनका कहना था - साहब हम तो भूखे रह भी ले पर हमसे अपने बच्चों का भूखा रहना नहीं देखा जाता। हमें तो कोई किराने वाला एक दिन उधार आटा-दाल भी नहीं देता। सोचता है कि पता नहीं कैसे चुकायेगा और कितने दिन में चुकायेगा।
वाकई कोई इनके बारे में तो सोचता ही नहीं। बंद करने वालों को बंद करना है, हड़ताल वालों को हड़ताल। सभी जानते हैं कुछ अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने के लिए ये सब करते हैं तो कुछ बेचारे व्यवस्थाओं से परेषान हो कर, आक्रोषित होकर ऐसा करते हैं। राजनीतिक रोटियाँ सेकने वालों से तो कहें क्या? उन्हे तो गरीब जनता से वैसे भी कोई लेना देना नहीं हैं। लेकिन उन से तो थोड़ी सी अपेक्षा रहती है जो व्यवस्था दुरूस्त करने के लिए, प्रषासन पर दबाब बनाने के लिए यह सब करते हैं। पर कोई इस ओर ध्यान ही नहीं दे पाता कि बंद के दौरान कितने लोग अपने और अपने बच्चों के पेट की आग पानी से बुझायेंगें, कैसे वो छोटे-छोटे बच्चों को बहलायेंगें, भूखे पेट उन्हें कैसे सुलायेगें ? कल उस मजदूर के चेहरे पर परेषानी के भाव अगर ये हड़ताली देख लेते तो शायद फिर कभी हड़ताल न करते। उस मजदूर के सामने यही समस्या थी कि कैसे वो खाली हाथ जाये। घर पर वो कैसे अपनी पत्नी को समझायेगा, चलो पत्नी तो समझ भी जायेगी। बच्चों को क्या कह कर समझायेगा। उसका मन यह सब सोच कर परेशान हो रहा था।
ग्वालियर बंद के दौरान -
हत्या के बंद के दौरान एनएसयूआई का गुस्सा कई लोगों पर उतरा। जिनका न तो कोई संबंध इस हत्या से था और नगर प्रशासन से। वे तो खुद नगर में फैली अव्यवस्था से
परेशान थे। बंद के दौरान एनएसयूआई के कार्यकर्त्ता फूलबाग पर खड़े पौहा के ठेले पर लाठी - डण्डे के साथ टूट पड़े। उसका सारा पौहा खराब कर दिया। एक आॅटो में वृद्ध महिला व बच्चे सवार थे इन हुडदंगियों को यह भी रास नहीं आया। उन्होने आॅटो को रोका उसके कांच फोड़ दिये और उस वृद्ध महिला और बच्चों को भरी दोपहर में पैदल भगा दिया। एजी आॅफिस के सामने एक यात्री बस को रोककर तोड़फोड़ की।
मै अक्सर यही सोचता हूँ इस तरह के बंद का क्या मतलब है? आप किसी परेषानी की वजह से बंद का आवाहान कर रहे हैं अच्छी बात है। पर इतना नहीं समझ में आता क्या आप बंद के दौरान जो जो करते हैं उससे किसी को तकलीफ नहीं होती क्या ? कुछ अपराधी जो छुप - छुप कर कर रहे थे वह सब आप बंद के नाम पर खुले आम कर रहे हैं। बंद करो, प्रशासन पर दबाव बनाओ पर गरीब जनता को तो तकलीफ न पहुंचाओ।